इसे दास्ता की फितरत कहें या अज्ञानता। भौतिक रूप से स्वतंत्रता की प्रसन्नता भी हमें मानसिक गुलामी के भँवर से बाहर निकालने में असमर्थ है। जी हाँ, अँग्रेजों की गुलामी से वर्तमान मीडिया की गुलामी तक के सफ़र के विभेदीकरण में आज भी हम असमर्थ हैं। वैयक्तिक वैचारिक क्षमता, विश्लेषण-संश्लेषण की बौद्धिकता विलुप्त होती जा रही है। तभी तो आज हम मीडिया के नेत्रों से देखे दृश्यों तथा श्रवणेन्द्रियों से सुने शब्दों के दास हो गये हैं। व्यक्तिगत निर्णय लेने की क्षमता जैसी शब्दावली हमारे शब्दकोश में स्थान पाने में असफल होती जा रही है। हाल ही में धूम मचा रहे गीत ‘कोलावेरी डी’ की विवेचना करें तो यह गीत पहली बार सुनने पर कर्णप्रिय होने का विश्वास भी नहीं जीत पाता परन्तु मीडिया में इसकी चर्चा सुनते ही यह हमारा ‘प्रिय गीत’ बन जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे बच्चों में भी ‘डर्टी पिक्चर’ की चर्चा मात्र ही रसानुभूति का संचार कर रही है। वही दूसरी ओर ‘बोल’ सरीखी गंभीर एवं अर्थयुक्त फिल्में योग्य स्थान पाने तक में भी लाचार रही। कितनी विचित्र पसंद हो गई है ना हमारी! चूँकि मीडिया ने इन्हें हाइप दी है तो यह हमें अवश्य पसंद करनी चाहिए अन्यथा लोग हमें ‘बैकवर्ड’ समझेंगे। इसी मानसिकता के दायरे में सीमित हो गये हैं आज हम। पर ज़रा सोचिये- अपनी पसंद-नापसंद न पहचानने व उसे सामाजिक रूप से स्वीकार न कर पाने की विवशता क्या हमारी व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है? शिक्षित होते हुए भी इस अशिक्षित स्थिति में प्रवेश करना कितना शर्मनाक है??
व्यक्तिगत रूप से न तो मैंने "कोलाबेरी" सुना है न ही डर्टी पिक्चर देखा...मगर पश्चिम का
जवाब देंहटाएंअन्धानुकरण करते करते हम शायद सचमुच ये भूल जा रहें हैं की चारित्रिक और नैतिक पतन की पराकाष्ठा में विचारों और संस्कारो की लक्ष्मन रेखा कब मिट गयी हमारे परिवेश से..
बहुत अच्छा प्रश्न उठाया आप ने इस लेख के माध्यम से ..