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सोमवार, 25 जुलाई 2011

तुम मुझे गाय दो, मैं तुम्हे भारत दूंगा


मित्रों शीर्षक पढ़कर चौंकिए मत| मैं कोई नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसा नारा लगाकर उनके समकक्ष बनने का प्रयास नहीं कर रहा| उनके समकक्ष बनना तो दूर यदि उनके अभियान का योद्धा मात्र भी बन सका तो स्वयं को भाग्यशाली समझूंगा|

अभी जो शीर्षक मैंने दिया, वह एक अटल सत्य है| यदि भारत निर्माण करना है तो गाय को बचाना होगा| एक भारतीय गाय ही काफी है सम्पूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था चलाने के लिए| किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की आवश्यकता ही नहीं है| ये कम्पनियां भारत बनाने नहीं, भारत को लूटने आई हैं|

खैर अब मुद्दे पर आते हैं|मैं कह रहा था कि मुझे भारत निर्माण के लिए केवल भारतीय गाय चाहिए| यदि गायों का कत्लेआम भारत में रोक दिया जाए तो यह देश स्वत: ही उन्नति की ओर अग्रसर होने लगेगा| मैं दावे के साथ कहता हूँ कि केवल दस वर्ष का समय चाहि

शनिवार, 23 जुलाई 2011

बुराई से मुक्ति का उपाय कैसे हो ?

पशु-पक्षियों की तरह खाने-पीने और प्रजनन की क्रियाएं मनुष्य भी करता है। उनकी तरह मनुष्य भी अपनी, अपने परिवार की और अपने समूह की देखभाल करता है। इन बातों में समानता के बावजूद पशु-पक्षियों से जो चीज़ उसे अलग करती है, वह है उसकी नैतिक चेतना। पशु-पक्षियों में भी भले-बुरे की तमीज़ पाई जाती है लेकिन एक तो वह मनुष्य के मुक़ाबले बहुत कम है और दूसरे वह उनके अंदर स्वभावगत है यानि कि अगर वे चाहें तो भी अपने स्वभाव के विपरीत नहीं कर सकते जबकि मनुष्य में भले-बुरे की तमीज़ भी बहुत बढ़ी हुई होती है और उसे यह ताक़त भी हासिल है कि वह अपने स्वभाव के विरूद्ध जाकर बुरा काम भी कर सकता है।

भले-बुरे का ज्ञान और उनमें चुनाव का अधिकार ही मनुष्य की वह विशेषता है जो कि उसे पशु-पक्षियों से अलग और ऊंची हैसियत देती है।मनुष्य सदा से ही समूह में रहता है और समूह सदैव किसी न किसी व्यवस्था के अधीन हुआ करता है। हज़ारों साल पर फैले हुए मानव के विशाल इतिहास को सामने रखकर देखा जाए और जिन जिन व्यवस्थाओं के अधीन वह आज तक रहा है, उन सबका अध्ययन किया जाए

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

आखिर कब तक चलेगा यह सब???


मित्रों वर्षों से हम भारतवासी इसी हीन भावना में जी रहे हैं कि क्या हम सदियों से भूखे, नंगे व पिछड़े हुए थे? यदि ऐसा था तो हमे विश्वगुरुसोने की चिड़िया जैसी उपाधियाँ कैसे मिल गयीं?
यहाँ तो एक प्रकार का कन्फ्यूज़न हो गया| क्या यह सच है कि हम सच में विश्वगुरु थे? क्या यह सच है कि हम सच में सोने की चिड़िया थे?

इस प्रकार कि उधेड़बुन में हमे जीना पड़ रहा है| इस विषय पर राष्ट्रवादी विचारधारा के धनि महान वैज्ञानिक स्व. श्री राजीव दीक्षित का एक व्याख्यान सुना था| यह लेख उसी व्याख्यान से प्रेरित है| अत: आप भी राजिव भाई के इस ज्ञान का लाभ उठाइये|

शीर्षक आपको बाद में समझाऊंगा किन्तु लेख से पहले आपको एक सच्ची कहानी सुनाना चाहता हूँ|
हमारे देश में एक महान वैज्ञानिक हुए हैं प्रो. श्री जगदीश चन्द्र बोस भारत को और हम भारत वासियों को उन पर बहुत गर्व है| इन्होने सबसे पहले अपने शोध से यह निष्कर्ष निकाला कि मानव की तरह पेड़ पौधों में भी भावनाएं होती हैं| वे भी हमारी तरह हँसते खिलखिलाते और रोते हैं| उन्हें भी सुख दुःख का अनुभव होता है| और श्री बोस के इस अनुसंधान की तरह इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है|

श्री बोस ने शोध के लिये कुछ गमले खरीदे और उनमे कुछ पौधे लगाए| अब इन्होने गमलों को दो भागों में बांटकर आधे घर के एक कोने में तथा शेष को किसी अन्य कोने में रख दिया| दोनों को नियमित रूप से पानी दिया, खाद डाली| किन्तु एक भाग को श्री बोस रोज़ गालियाँ देते कि तुम बेकार हो, निकम्मे हो, बदसूरत हो, किसी काम के नहीं हो, तुम धरती पर बोझ हो, तुम्हे तो मर जाना चाहिए