गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

परतंत्र शिक्षातंत्र



नवजात शिशु असहाय अवस्था में होता है। उसका पालन-पोषण तो परिवार में माता-पिता के संरक्षकत्व में होता है किन्तु उसकी बौद्धिक चेतना का दीप शिक्षा के द्वारा ही प्रज्वलित होता है। शिक्षा के द्वारा ही बालक की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार व्यंिक्तत्व के पूर्ण विकास के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यह प्रगति का आधार है। जिस देश और समाज में अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित होती है, वह देश और समाज संसार में पिछड़ा हुआ कहलाया जाता है। अतः शिक्षा न केवल व्यक्ति के व्यंिक्तत्व विकास के लिए वरन् समाज व देश की पूर्ण उन्नति के लिए भी उत्तरदायी है।
शिक्षा का उपर्युक्त लिखा महत्व सर्वविदित है और सर्वस्वीकार्य भी। तथापि आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली जर्जर होती जा रही है। विभिन्न आयोगों का गठन इसकी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु किया जाता रहा है, परन्तु परिणाम ‘सिफर’ ही है। यह कथन पाठकों को निःसन्देह विचित्र प्रतीत हो रहा होगा, क्योंकि आाधुनिक पाठ्यक्रम व ऊँची-ऊँची स्कूल इमारतें व उत्कृष्ट परिणाम इत्यादि का तिलिस्म शिक्षा के मूल उद्देश्य को अदृश्य कर चुका है और अस्थायी उन्नति की चकाचौंध भावी परिणामों को दृष्टिगत होने नहीं दे रही है। इस भ्रमित भंवर से बाहर निकलने के लिए अग्रलिखित तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है-
‘‘हमारा शिक्षा-तंत्र तीन स्तरों में विभाजित है- प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा। वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण हेतु भर्ती के लिए मुख्यतः दो द्वार प्रचलित हैं- विशिष्ट बीटीसी एवं बीटीसी। दोनों ही द्वार कई महाद्वारों पर ‘माया भंेट’ के पश्चात् ही खुलते हैं। बी. एड. की ही भाँति बीटीसी का भी बाजार सज चुका है। और नौकरी की आस में बोली लगाने वाले अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। आशा वही पुरानी है- ‘बीटीसी के उपरान्त सुरक्षित भविष्य की गारण्टी’ अर्थात् ‘सरकारी नौकरी’।
मगर अफसोस! टीइटी व सीटीइटी सरीखे द्वारपाल कटोरा लिए इन द्वारों पर क्रूर रूप धारण किये सुशोभित हैं। प्रतिवर्ष नौकरी की दरकार करने वाले बेरोजगारों को इन परीक्षाओं हेतु माया की भंेट तो चढ़ानी ही होगी। और यदि किसी का कोटा एक वर्ष में ही पूरा हो गया अर्थात् यह परीक्षा उत्तीर्ण हो गई तो प्रसन्नचित मुद्रा पर विराम लगाइये और पाँच वर्षों के पश्चात् पुनः उस कटोरे में भेंट चढ़ाइये। यहाँ से आप साँप-सीढ़ी की प्रथम पंक्ति से प्रोन्नत हो द्वितीय पंक्ति पर आ गये। यहाँ आपको मिलेंगे ‘मेरिट’ रूपी ‘नाग देवता’, जो कब आपको डस लें, यह आपका भाग्य। इस पंक्ति में आगे बढ़ने की आपकी चाल घोर प्रतिक्षा के उपरान्त ‘रिक्तियों’ की सूचना के पश्चात ही आयेगी। और फिर आरम्भ होगा पुनः सरकारी कटोरे में भंेट चढ़ाने का सिलसिला। फॉर्म भरने से मेरिट लगने तक खूब धन-धान्य की वृष्टि विभिन्न विभागों पर आपके द्वारा की जायेगी। भाग्यवश आप मेरिट में आ जाते हैं तो तैयार हो जाइये दुर्गम स्थानों की सैर के लिए। ये वे गाँव व बस्तियाँ होंगी जिनकी कल्पना आपने अपने स्वपन में भी नहीं की होगी। स्थिति इतनी असहनीय हो जायेगी कि आप भागेंगे एक नये जुगाड़ के लिए जहाँ आप घर बैठकर इन कोर्सों व नौकरियों का आनन्द ले सकें। लेकिन यहाँ कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता जनाब! याद है ना माया की भेंट। चलिए, अब थोड़ी सी प्रसन्नता आपको नौकरी पाने की अवश्य होगी परन्तु साथ ही चिन्तनीय है कि उस अपरिचित व घर से इतनी दूर कैसे रहा जाये? विशेषतः लड़कियों के लिए तो यह अत्यन्त विकट समस्या है। यहाँ आवश्यकता है आपकी याददाशत के पुर्नाभ्यास की और चढ़ाइये भेंट माया की। यहाँ विभिन्न समस्याओं का एकमात्र समाधान माया ही है।’’
विचारणीय है कि इस प्रकार की परिस्थितियों से उपजित शिक्षक क्या अपने दायित्वबोध से परिचित रह पायेंगे? प्राथमिक विद्यालयों में अवनत शिक्षा स्तर इसी के परिणाम का प्रदर्शन कर रहा है। मिड डे मील में कीड़े, अनुपस्थित शिक्षक और ज्ञानविहीन कोरे बालक, ऐसा प्रतीत होता है मानो शिक्षक आपबीती का प्रतिशोध ले रहे हों।
अधिकांशतः इन प्राथमिक विद्यालयों में अभावग्रस्त बच्चे ही प्रवेश लेते हैं। भाग्य को प्रतिपल चुनौती देना इनकी दिनचर्या में सम्मिलित है। संघर्ष इनकी नियति है। तो क्या इन बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? क्या गरीबी से आइएएस, पीसीएस की कल्पना व्यर्थ है? वस्तुतः निर्धनों के सुनहरे सपनों को तोड़ने का यह पाप अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा-तंत्र द्वारा ही किया जा रहा है।
शिक्षा का कोई भी स्तर हो प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च, एक समस्या सर्वव्यापी है- ‘अध्यापको द्वारा ट्यूशन के लिए बाध्य किया जाना’। ट्यूशन के लोभ में शिक्षकों के गिरते स्तर की पराकाष्ठा इनके द्वारा विद्यार्थियों का मानसिक, शारीरिक व आर्थिक शोषण है। प्रायः समाचार-पत्र शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रति किये गये दुर्व्यवहार की घटनाओं से लबालब रहते हैं। शिक्षकों द्वारा अपने पेशे की गरिमा के परे छात्राओं का किया जाने वाला शारीरिक शोषण, शिक्षकों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करता है। कैसे निश्चिन्त हो जायें अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा के मंदिर में भेजकर?
विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर कहना अब उचित न होगा। विद्यालय-कॉलेज अब एक ऐसा व्यापार हो गये हैं जिसमें मुनाफा निश्चित है, घाटे का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्यालय में बच्चे का दाखिला मानो शेयर मार्केट में पैसा लगाने जैसा है। जितना बड़ा निवेश उतना मोटा फायदा। तथापि सुरक्षा, अनिश्चित। डोनेशन से लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों के नाम पर लूट, स्कूल यूनिफॉर्म से किताबों तक पर लुटाई, कभी टूर पर जाने के लिए विवश किया जाना तो कभी किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इत्यादि। आखिर माता-पिता बच्चों को पढ़ायें तो पढ़ायें कैसे? प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक शिक्षा प्राप्ति का आधार योग्यता न रहकर पैसा हो गया है। जो जितना निवेश करेगा, उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।
वर्तमान शिक्षा नीतियों ने शिक्षा की गुणवत्ता को भी संदिग्ध किया है। उदाहरण स्वरूप आठवीं कक्षा व दसवीं कक्षा में अब कोई भी विद्यार्थी अनुत्तीर्ण नहीं होगा। बेसिक स्तर पर ही यदि विद्यार्थी के फेल न होने के डर को संरक्षण मिल जायेगा तो भला विद्यार्थी के लिए परिश्रम का क्या महत्व रह जायेगा? दसवीं कक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी को पास करने का परिणाम हम देख ही चुके हैं। ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश के लिए होती मारामारी ने भ्रष्टाचार को उड़ान हेतु विस्तृत आकाश प्रदान कर दिया। अधिकतम अंक प्राप्तकर्ताओं को प्रवेश प्राप्त हो गया परन्तु कम अंक वाले विद्यार्थियों को अंधकारमय भविष्य ने भोग लगाया। यदि वे विद्यार्थी दसवीं मंे ही अनुत्तीर्ण हो जाते तो कम से कम उनके पास पुनः परिश्रम कर अच्छे अंक प्राप्त करने का अवसर सुरक्षित रहता । यद्यपि यह निर्णय विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को कम करने हेतु लिया गया था परन्तु इसके पश्चात् भी स्थिति यथावत् रही। कहीं प्रवेश न मिल पाने की कुण्ठा, अवसाद व हीनभावना ने उन्हें पुनः एक ही मार्ग की ओर प्रेरित किया। पलायनवादी प्रवृत्ति के विद्यार्थियों ने आत्महत्या के मार्ग का ही चयन किया। बहरहाल स्थिति अधिक विकट अवश्य हो गई। प्रवेश न मिल पाने के कारण घर खाली बैठने, छोटे-मोटे रोजगार में लगने व वैकल्पिक कोर्स करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो गई। इस शिक्षा नीति ने बहुत से विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा से वंचित तो किया ही, साथ ही निराशा ने उन्हें अपराध की ओर प्रवृत भी किया।
इन चाणक्य नीतियों की भला और क्या तारीफ की जाये। इन्होंने बेरोजगारी की परिभाषा का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया है। ‘‘शिक्षित वर्ग जो रोजगार प्राप्त नही कर पाता है, बेराजगार कहलाता है।’ इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत न तो बालक शिक्षित हो सकेगें और न ही अच्छी नौकरी की आकांक्षा रख सकेंगे। वाह समाधान!
उच्च स्तरीय शिक्षा का आलम देखिए- पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश में शोध और प्रबंधन से जुड़े शीर्ष संस्थानों आइआइटी और आइआइएम की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा, ‘‘विद्यार्थियों की गुणवत्ता के कारण ही हमारे आइआइटी और आइआइएम संस्थान उत्कृष्ट बने हुए हैं।’’ रमेश के अनुसार, ‘‘संस्थान नहीं, यहाँ के छात्र विश्वस्तरीय हैं। सरकारी तंत्र की मकड़जाल के चलते भारत विश्वस्तरीय शोध केन्द्र विकसित नहीं कर पाता है।’’
वस्तुतः माननीय रमेश जी की यह कोई कल्पना नही वरन् यर्थाथ का वह आइना जिसकी स्वीकार्यता लज्जित करती है। विश्वविद्यालयों व सम्बद्ध महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति रजिस्टर में भले ही 75ः से अधिक है परन्तु वास्तविकता यह है कि विद्यार्थियों की आधे से अधिक संख्या ऐसी होती है जो परीक्षा देते समय ही कॉलेज के दर्शन करते हैं। नियमित उपस्थिति तो असंभव है। और जो कॉलेज में नियमित रूप से आने वाले विद्यार्थी हैं उन्हें प्रायः दूसरी कक्षाओं के बाहर लड़कियांे को ताकते हुए पाया जा सकता है।
यह सब निकृष्ट होते शिक्षा-तंत्र की मात्र कुछ झलकें हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक व ईमानदारी का सानिध्य लेते हुए शिक्षा-तंत्र की वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाये तो यूजीसी, एनसीटीई, सीबीएससी, आइसीएससी, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, स्कूल-कॉलेज, कोचिंग इंस्टीट्यूट इत्यादि प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार की होड़ लगी है। यह फहरिस्त इतनी लम्बी है कि इसके हर एक शब्द का अपना एक उपन्यास है। विस्मयबोधक है कि इस शिक्षा-तंत्र से जूझते हुए भी विद्यार्थी अपना विश्वास इसमें बनाये हुए हैं और उज्ज्वल भविष्य के लिए आशातीत हैं। निःसन्देह उम्मीद पर दुनिया कायम है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस उम्मीद की लौ यूँ ही रोशन रहे। परन्तु यह भी सच है कि ‘‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए’’। अब सटीक समाधान खोजा जाना नितांत आवश्यक है। अन्यथा सम्भावना है कि विश्वास की डोर छूटते ही काला भविष्य निर्दोष व निराश विद्यार्थियों को जुर्म की राह न दिखा दे। और गाँधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह आदि जैसे महान व्यंिक्तत्वों के सपनों के भारत की भावी पीढ़ी उनके बलिदान को अज्ञानतावश कलंकित कर जाये। विषय वास्तव में गम्भीर है।



शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

धर्म आधारित आरक्षण भारत के लिए विष का प्याला


भारत में सत्ता हस्तांतरण के पश्चात आरक्षण उन वर्गो को दिया गया था जो बेहद दबे और कमजोर जाति से संबंध रखते थे तथा आरक्षण के बिना उनका आगे बढ़ना असम्भव था । ग्रामीण और उपनगरीय क्षेत्रों में तो उनकी परछाई तक प्रदूषित मानी जाती थी । मूल रूप से इसे अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए 10 वर्षो के लिए रखा गया था । मगर यह आरक्षण न केवल 64 वर्षो से चला आ रहा है , बल्कि विभिन्न समुदायों में विद्वेष पैदा करने के लिए फैलता भी जा रहा है । इसमें उन समुदायों की आवश्यकता से अधिक वोट बैंक की राजनीति का हाथ है ।
अब ये आरक्षण विकराल रूप लेने लगा है । हिन्दू समाज की गुर्जर , कुम्हार आदि जातियों के साथ - साथ मुस्लिम व ईसाई समाज भी धार्मिक आधार पर आरक्षण मांगने लगे है । आखिर आरक्षण कब समाप्त होगा ? क्या यह देश को अखंड व सुरक्षित रहने देगा ? देश के अन्य वर्ग , जाति और समुदाय कब तक चुप रहेंगे ? एक दिन वह भी आरक्षण की मांग करेंगे । सामान्य कहे जाने वाली जातियां भी आरक्षण की मांग करेंगी । क्योंकि उनके लिए तो कुछ भी नहीं बचता , क्योंकि आरक्षित वर्ग आरक्षण के कारण तो अपना अधिकार लेता ही है । सामान्य वर्ग के हिस्से में भी भागीदार हो जाता है , ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या सामान्य वर्ग में गरीब व बेसहारा नहीं है ? या तो सरकार हर जाति और समुदाय के गरीब परिवार के युवाओं को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दें या फिर आरक्षण को समाप्त कर दें । वरना आरक्षण पाओ और आबादी बढ़ाओं ही चलता रहेंगा । देश की चिन्ता कोई नहीं करेगा ।
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में डॉ. भीमराव अम्बेदकर ने कहा था कि जातियां राष्ट्रविरोधी है । पहला , इसलिए कि ये सामाजिक जीवन में अलगाव लाती है । ये राष्ट्रविरोधी है क्योंकि ये समुदायों में ईष्या तथा घृणा पैदा करती है । यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र बनाना चाहते है तो हमें इन सभी कठिनाईयों से पार पाना होगा । भाईचारा होगा तो ही राष्ट्र बनेगा ।
पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर का कहना है कि जाति के आधार पर आरक्षण तथा अन्य उपाय समाज तथा राष्ट्रहित में नहीं है । उन्होंने कहा कि यह अत्यन्त गरीब तथा सभी समुदायों के जरूरतमंद लोगों को मिलना चाहिए ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समान अवसर देने का वचन देता है तो अनुच्छेद 15 ( 1 ) के द्वारा यह विश्वास दिलाया गया है कि जाति , धर्म , संस्कृति या लिंग के आधार पर राज्य किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा । मुसलमान व ईसाई आदि अल्पसंख्यकों को भी बहुसंख्यकों के बराबर स्वतंत्रता व रोजगार का अधिकार प्राप्त है । भारत का संविधान स्पष्ट शब्दों में धर्म आधारित आरक्षण की मनाही करता है । तो भी सन 2004 में आंध्र प्रदेश की तत्कालीन राजशेखर रेड्डी की सरकार ने संविधान की मूल भावना के विरूद्ध अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण हेतु धर्म के आधार पर विभाजित भारत के इतिहास में धर्म के आधार पर आरक्षण का एक नया पन्ना जोड़ा । जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ गौर कर रही है । अल्पसंख्यक वोटों के भूखे अन्य राजनीतिक दल भी इसका अनुकरण करने के लिए लालायित है ।
मुस्लिमों के लिए आरक्षण वस्तुतः उस मर्ज का इलाज ही नहीं है , जिससे मुस्लिम समुदाय ग्रस्त है । विडंबना यह है कि सेक्युलर दल अवसरवादी राजनीति के कारण उस मानसिकता को स्वीकारना नहीं चाहते । बुर्का प्रथा , बहुविवाह , मदरसा शिक्षा , जनसंख्या अनियंत्रण जैसी समस्याओं को दूर किए बगैर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की कवायद एक छलावा मात्र है । इस प्रतियोगी युग में भी अधिकांश मुस्लिम नेताओं द्वारा मदरसों की अरबी - फारसी शिक्षा को ही यथेष्ट माना जाना तथा अपने समुदाय के लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित न करना क्या दर्शाता है । वे अपनी बढ़ी आबादी के बल पर राजनीतिक दलों के साथ ब्लैकमेलिंग की स्थिति में है ।
हिन्दू और मुसलमानों की साक्षरता दर के साथ जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना करें तो मुस्लिमों के पिछड़ेपन का भेद खुल जाता है । केरल की औसत साक्षरता दर 90.9 प्रतिशत है । मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है , जबकि हिन्दुओं में यह दर 20 प्रतिशत है । महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर हिन्दुओं की तुलना में 52 प्रतिशत अधिक है । छत्तीसगढ़ में साक्षरता 82.5 प्रतिशत तो जनसंख्या दर हिन्दुओं की तुलना में 37 प्रतिशत अधिक है । संसाधन सीमित हो और उपभोक्ता असीमित तो कैसी स्थिति होगी ?
अल्पसंख्यक बोट बटोरने के लिए आरक्षण को एक हथियार के रूप में प्रयुक्त कर रही राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को खुले मस्तिष्क से धर्म आधारित आरक्षण के दीर्घकालिक परिणामों पर सोचना चाहिए । धर्म के आधार पर आरक्षण कालांतरण में राज्य व केन्द्र स्तर पर अलग - अलग क्षेत्रों की मांग का भी मार्ग प्रशस्त कर सकता है । जो भारत के लिए विष का प्याला सिद्ध होगा । जाति और धर्म आधारित आरक्षण समाज में मतभेद बढ़ाता है और राष्ट्रीय एकता को खंडित करने का काम करता है ।
दूसरी ओर आर्थिक आधार पर आधारित आरक्षण कोई फूट नहीं डालता और विभिन्न समुदायों में कोई वैमनस्य नहीं बढ़ाता । अभी भी आरक्षण का आधार आर्थिक करने का एक अवसर है , इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाई जा सकती है । यदि धर्म आधारित आरक्षण दिया गया तो इसके परिणाम राष्ट्रीय एकता के लिए विष के समान घातक सिद्ध होगे ।
- विश्वजीत सिंह


@ राष्ट्रभक्तों के नाम एक आत्मीय निवेदन :- मित्रों यदि आप इन्टरनैट की दुनियां से बाहर निकल कर धरातल पर राष्ट्रहित में कुछ ठोस करने का ध्येय रखते है तो अपना नाम , पता , मोबाईल नं. , ईमेल आई डी , शिक्षा व जॉब प्रोफाईल सहित मुझे vishwajeetsingh1008@gmail.com पर ईमेल करें , जिससे भविष्य में धरातल पर सुसंगठित तरीके से कार्यारम्भ किया जा सकें ।
वन्दे मातरम्

ये गुलामी क्यों?? :Why this slavery?:


इसे दास्ता की फितरत कहें या अज्ञानता। भौतिक रूप से स्वतंत्रता की प्रसन्नता भी हमें मानसिक गुलामी के भँवर से बाहर निकालने में असमर्थ है। जी हाँ, अँग्रेजों की गुलामी से वर्तमान मीडिया की गुलामी तक के सफ़र के विभेदीकरण में आज भी हम असमर्थ हैं। वैयक्तिक वैचारिक क्षमता, विश्लेषण-संश्लेषण की बौद्धिकता विलुप्त होती जा रही है। तभी तो आज हम मीडिया के नेत्रों से देखे दृश्यों तथा श्रवणेन्द्रियों से सुने शब्दों के दास हो गये हैं। व्यक्तिगत निर्णय लेने की क्षमता जैसी शब्दावली हमारे शब्दकोश में स्थान पाने में असफल होती जा रही है। हाल ही में धूम मचा रहे गीत ‘कोलावेरी डी’ की विवेचना करें तो यह गीत पहली बार सुनने पर कर्णप्रिय होने का विश्वास भी नहीं जीत पाता परन्तु मीडिया में इसकी चर्चा सुनते ही यह हमारा ‘प्रिय गीत’ बन जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे बच्चों में भी ‘डर्टी पिक्चर’ की चर्चा मात्र ही रसानुभूति का संचार कर रही है। वही दूसरी ओर ‘बोल’ सरीखी गंभीर एवं अर्थयुक्त फिल्में योग्य स्थान पाने तक में भी लाचार रही। कितनी विचित्र पसंद हो गई है ना हमारी! चूँकि मीडिया ने इन्हें हाइप दी है तो यह हमें अवश्य पसंद करनी चाहिए अन्यथा लोग हमें ‘बैकवर्ड’ समझेंगे। इसी मानसिकता के दायरे में सीमित हो गये हैं आज हम। पर ज़रा सोचिये- अपनी पसंद-नापसंद न पहचानने व उसे सामाजिक रूप से स्वीकार न कर पाने की विवशता क्या हमारी व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है? शिक्षित होते हुए भी इस अशिक्षित स्थिति में प्रवेश करना कितना शर्मनाक है??