शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

वैलेंटाइन डे: प्रेम का पर्व या संस्कारों का अवमूल्यन :


वर्तमान महानगरीय परिवेश में पश्चिम का अन्धानुकरण करने की जो यात्रा शुरू हुई है उसका एक पड़ाव फ़रवरी महीने की १४ तारीख है,हालाँकि प्रेम की अभिव्यक्ति किसी भी प्रकार की हो सकती हैमाँ-बाप,बेटा,भाई,बहन किसी के लिए मगर ये त्यौहार वर्तमान परिवेश में प्रेमी प्रेमिकाओं के त्यौहार के रूप में स्थापित किया गया हैआज कल के युवा या यूँ कह ले आज कल कूल ड्यूड्स बड़े जोर शोर से इस त्यौहार को मना कर आजादी के बाद भीअपनी बौधिक और मानसिक गुलामी का परिचय देते मिल जायेंगे Iपिछले १५-२० वर्षों में इस त्यौहार ने भारतीय परिवेश में अपनी जड़े जमाना प्रारम्भ किया और अब इस त्यौहार के विष बेल की आड़ में हमारी युवा पीढ़ी में बचे खुचे हुए भारतीय संस्कारो का अवमूल्यन किया जा रहा हैइस त्यौहार के सम्बन्ध में कई किवदंतियां प्रचलित है में उनका जिक्र करके उनका विरोध या महिमामंडन कुछ भी नहीं करना चाहूँगा क्यूकी भारतीय परिवेश में ये पूर्णतः निरर्थक विषय हैI

मेरे मन में एक बड़ा सामान्य सा प्रश्न उठता है की प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए हम एक खास दिन ही क्यों चुने??जहाँ तक प्रेम के प्रदर्शन की बात है हमारे धर्म में प्रेम की अभिव्यक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा है मीरा और राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम I मगर महिमामंडन वैलेंटाइन डे का?कई बुद्धिजीवी(या यूँ कह ले अंग्रेजों के बौधिक गुलाम) अक्सर ये कुतर्क करते दिखते हैं की इसे आप प्रेमी प्रेमिका के त्यौहार तक सीमित न करेमेरी बेटी मुझे वैलेंटाइन की शुभकामनायें देती है,और पश्चिम में फादर डे,मदर डे भी मनाया जाता है I मेरा ऐसे बौधिक गुलाम लोगो से प्रश्न है की,अगर पश्चिम में मानसिक और बौधिक रूप से इतना प्रेम भरा पड़ा है कीवहां से प्रेम का त्यौहारहमे उस धरती पर आयात करना पड़ रहा है जहाँ निष्काम प्रेम में सर्वस्व समर्पण की प्रतिमूर्ति मीराबाई पैदा हुईतो पश्चिम में ओल्ड एज होम सबसे ज्यादा क्यों हैं?? क्यों पश्चिम  का निष्कपट प्रेम वहां होने वाले विवाह के रिश्तों को कुछ सालो से ज्यादा आगे नहीं चला पाता.उस प्रेम की मर्यादा और शक्ति तब कहा होती  है ,जब तक बच्चा अपना होश संभालता है ,तब तक उसके माता पिता कई बार बदल चुके होते हैं और जवानी से पहले ही वो प्रेम से परे एकाकी जीवन व्यतीत करता है I ये कुछ विचारणीय प्रश्न है उन लोगो के लिए जो पाश्चात्य सभ्यता की गुलामी में अपनी सर्वोच्चता का अनुभव करते हैं I
ये कैसी प्रेम की अनुभूति है जब पिता पुत्र  से कहता है की तुम्हारा कार्ड मिला थैंक्यू सो मच..और फिर वो एक दूसरे से सालो तक मिलने की जरुरत नहीं समझते I ये कौन से प्रेम की अभिव्यक्ति है जब प्रेमी प्रेमिका विवाह के समय अपने तलाक की तारीख भी निश्चित कर लेते हैं,और यही विचारधारा हम वैलेंटाइन डे:फादर डे मदर डे के रूप में आयात करके अपने कर्णधारो को दे रहे हैंI
मैं किसी धर्म या स्थान विशेष की मान्यताओं के खिलाफ नहीं कह रहा मगर  मान्यताएं वही होती है जो सामाजिक परिवेश में संयोज्य हो I आप इस वैलेंटाइन वाले प्रेम की अभिव्यक्ति सायंकाल किसी भी महानगर के पार्क में एकांत की जगहों पर देख सकते हैंI
क्या ये वासनामुक्त निश्चल प्रेम की अभिव्यक्ति है?? या ये वासना की अभिव्यक्ति हमारे परिवेश में संयोज्य हैशायद नहीं,तो इस त्यौहार का इतना महिमामंडन क्यों?? मेरे विचार से भारतीय परिवेश में प्रेम की प्रथम सीढ़ी वासना को बनाने में इस त्यौहार का भी एक योगदान होता जा रहा है I आंकड़े बताते हैं की वैलेंटाइन डे के दिन परिवार नियोजन के साधनों की बिक्री बढ़ जाती हैक्या इसी वीभत्स कामुक नग्न प्रदर्शन को आप वैलेंटाइन मनाने वाले बुद्धिजीवी प्रेम कहते हैं
इस अभिव्यक्ति में बाजारीकरण का भी बहुत हद तक योगदान है कुछ वर्षो तक १-२ दिन पहले शुरू होने वाली भेडचाल वैलेंटाइन वीक से होते हुए वैलेंटाइन मंथ तक पहुच गयी है. मतलब साफ़ है इस नग्न नाच के नाम पर उल जलूल  उत्पादों को भारतीय बाज़ार में भेजनाIटेड्डी बियरग्रीटिंग कार्ड से होते हुए,भारत में वैलेंटाइन का पवित्र प्यार कहाँ तक पहुच गया है नीचे एक विज्ञापन से आप समझ सकते हैं?? 



वस्तुतः ये वैलेंटाइन डे प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन न होकर हमारे परिवेश में बाजारीकरण और अतृप्त लैंगिक इच्छाओं की पाशविक पूर्ति का एक त्यौहार बन गया है,जिसे महिमामंडित करके गांवों के स्वाभिमानी भारत को पश्चिम के  गुलामो  का इंडिया बनाने का कुत्षित प्रयास चल रहा हैIउमीद है की युवा पीढ़ी वैलेंटाइन डे के इतिहास में उलझने की बजाय गुलाम भारत के आजाद भारतीय विवेकानंद के इतिहास को देखेगी,जिन्होंने पश्चिम के आधिपत्य के दिनों में भी अपनी संस्कृति और धर्म का ध्वजारोहण शिकागो में कियाI


"वन्दे मातरम"

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

महिमा गौ माता की.


गाय मईया की महिमा तो अपार है जिसका उलेख शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है संत महात्माओ ने गो माता की महिमा के सम्बन्ध में अनेको व्याख्यान दिए है !
मातर: सर्वभूतानां गाव:
गाय सनातन संस्कृति की रीढ़ है !वेद शास्त्रों के अनुसार गाय माता पृथ्वी के समस्त प्राणियो की जननी है !
गाय के सींगो में ब्रह्मा,ललाट में शंकर,कानो में अश्वनी कुमार,नेत्रों में सूर्य चन्द्र,जीवा में पृथ्वी, पीठ पर नक्षत्रगण,गोबर में महालक्ष्मी,और थनों  में चारो समुद्र निवास करते है !
ब्राह्मणों और गुरु के पूजन से जो फल मिलता है ,वही फल गो माता के स्पर्श मात्र से प्राप्त हो जाता है ! बाल्मीक रामायण में आया है
विद्यते गोषु समभाव्यम विद्यते ब्रह्मणे तप:!
विद्यते स्त्रीषु चापळयम विद्यते ज्ञातितो भयम !!
इस श्लोक के प्रथम चरण में देखा जाए तो गाय माता पे ही तेनो लोक स्थित है ! अत: गाय माता प्रत्यक्ष देव है ! शास्त्रों में गाय के गोबर में महालक्ष्मी का निवास बतलाया है ,गो मूत्र में भागीरथी माँ गंगा का निवास है !
अरे वाह सरकार क्या कृपा है श्री युगल सरकार की लेख लिखते लिखते गाय माता के भी दर्शन हो गये, भगवती गाय माता घर की चोखट पे खड़ी है , गो रक्षक श्री गोपाल भी देखो क्या संयोग बनाते है ! श्री राधा श्री राधा श्री राधा !
गाय माता की रक्षा न केवल हर मानव का कर्तव्य है बल्कि धर्म भी है !
गावो ल्क्षम्या: सदा मुलं गोषु पाप्मान विद्यते !
अत्न्मैव सदा गावो देवानां परमं हवि :!!
गाय माता महालक्ष्मी का मूल है,उनमे पाप का लेश मात्र भी नहीं है ! गो माता ही मानव को अन्न और देवताओ को ग्रास प्रधान करती है !
निवटं गोकुलं यत्र श्वासं मुचित निर्भयम !
विराजयति तं देशं पापं चास्यापकषति !!
गाय माता जहा बेठ कर श्वास लेती है, उस स्थान की शोभा में वृद्धि होती है और वहा पे किया हुआ सारा पाप उतर जाता है !
गो माता की सेवा वास्तव में श्री गोपाल सेवा ही है, भगवान श्री कृष्ण गो माता से अपनी माता का भाव रखते थे,और ऐसे कई उदहारण आपको श्री भागवत महापुराण में देखने को मिल जायेंगे !

source : http://www.facebook.com/note.php?note_id=185578701480173

मँहगाई डायन बच्चे खात है.........


‘‘सखी सैंया तो खूब कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है’’। पीपली लाइव फिल्म का यह गीत वर्तमान निर्मम मँहगाई व सरकारी नीतियों पर तीखा व्यंग्य है। इन पंक्तियों को माध्यम बना बहुत से लेखकों ने विभिन्न समस्याओं की आलोचना की एवं जनजागरूकता का प्रयास किया। मँहगाई की काली छाया के प्रकोप से भयभीत एक नवीन विचारधारा हमारे समाज में विसरित हो रही है। ‘हम दो हमारा एक’ की नई सोच। नई पौध एक बच्चे की समर्थक है। उनके अनुसार भावी जीवन अत्यन्त जटिल है और उन परिस्थितियों की कल्पना ही उन्हें भयभीत कर देती है। वर्तमान परिस्थितियों में ही दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना अत्यन्त कठिन हो गया है। ऐसे में दो बच्चों का खर्चा वहन करना सरल नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि वे एक बच्चे की परवरिश में सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं। चौबीस घण्टे वे बच्चे के रहन-सहन एवं रख-रखाव पर अपनी नज़र रख सकते हैं। निःसन्देह इस निर्णय में नई पीढ़ी की सोच सकारात्मक एवं समाज हितवादी है। ‘एक बच्चा नीति’ का अनुसरण कर चीनी का बढ़ती जनसंख्या पर नियन्त्रण करने का प्रयास अभी तक जारी है। भारत की बढ़ती जनसंख्या भी चिंता का विषय है। ऐेसे में नई पीढ़ी यह निर्णय समझारी का प्रतीक है, सरहानीय है। बहरहाल देखना यह है नई पीढ़ी एवं उनके पूर्वजों के मध्य इस विषय पर चलने वाले वैचारिक संघर्ष में कौन विजयी होता है? परन्तु सार तो यही है कि ‘मँहगाई डायन’ ने अब बच्चों को भी खाना शुरू कर दिया है।