रविवार, 1 जनवरी 2012

नव वर्ष में नवीनता क्या ?

इस समय पूरे देश में 2012 आने के उत्सव मनाये जा रहे हैं और इन उत्सवों का स्वरूप भी 'विशुद्ध आधुनिक' है दूसरी तरफ इन्टरनेट पर हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी लोग इन उत्सवों की प्रासंगिकता पर चर्चाएँ कर रहे हैं | उत्सवों का रंग बड़े नगरों में कुछ ज्यादा ही चटख है और विरोधी स्वर्रों में जोर इस बात पर है की इस नववर्ष का मूल विदेश में है  या ये किसी दुसरे धर्म के प्रवर्तक के जन्म के  आधार पर है | सभी के पास अपने तर्क हैं और मेरे पास भी हैं |

मुझे इस बात से कोई समस्या नहीं है की इस नववर्ष का मूल भारत भूमि से दूर एशिया और यूरोप की सीमा पर स्थित बेथेहलम में है | हम अभी भी उन वेद ऋचाओ के अनुसार चलते हैं जिनका कहना है की "यज्ञ अर्थात अच्छे विचार समस्त दिशाओं से हमारे पास आयें " या "ज्ञान यदि शत्रु से भी मिले तो उसे ले लेना चाहिए" परन्तु हम यह अवश्य देखना चाहेंगे की जो हमें मिल रहा है ये ज्ञान है या अज्ञान है ; और यदि ज्ञान है भी तो मंगलकारी है या नहीं लोकहितकारी है या नहीं है |
सबसे पहले बात करते है ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा के जन्म दिन की ; अगर ईसा का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था तो नववर्ष 1 जनवरी को क्यूँ ? इसके अतिरिक्त ईसा का जन्म बेथेहलम में हुआ था और उनके जन्म के समय एक गुफा में भेड़ों और गडारियों की भी कथा है | परन्तु बेथेहलमने जनवरी के इस ठन्डे मौसम में गडरिये अपनी भेड़ों को लेकर बाहर नहीं निकलते हैं , इस संबंधमे मार्च या अप्रैल वाली परंपरा अधिक उचित प्रतीत होती है | जिस प्रकार "ईसा इश्वर का पुत्र है " ये बात का 'निर्णय' ईसा की मृत्यु  के 300 वर्षों बाद पादरियों की सभा में लिया गया था उसी प्रकार इस बात का भी निर्णय लिया गया हो की ईसा का जन्म नववर्ष के अवसर पर हुआ था | एक दूसरी संभावना ये दिखती है की ईसा का जन्म हिन्दू नववर्ष के दिन हुआ हो (जो की तार्किक रूप से भी सही लगता है ) और ये बात उस समय के उस स्थान के जनमानस में बैठ गयी हो परन्तु काल-गणना सही न होने के कारन वो लोग उसे संभल न पाए हो और बाद में किसी पादरी के कुछ निर्णय कर दिए हों |

अब बात ग्रेगेरियन कैलेंडर की करी जाय | कुछ लोग कह सकते हैं की भले ही इस नववर्ष का ईसा से कोई सम्बन्ध न हो पर एक वर्ष पूर्ण होने पर उत्सव किया जाता है | परन्तु अभी तक इस "वर्ष" की सही और उचित परिभाषा भी निर्धारित नहीं की जा सकी है | यदि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने को एक वर्ष माना जाय तो ग्रेगेरियन वर्ष इससे छोटा होता है और अगर 4 वर्षों में किये जाने वाले संशोधन को ध्यान में रखा जाय तो यह एक वर्ष से बड़ा हो जाता है | इसमें बहुत अधिक विसंगतियां हैं और इसकी सर्वमान्यता भी छद्म है |इसी लिए तो अक्तूबर क्रांति की वर्षगांठ नवम्बर में होती है और लन्दन में एक बार दंगे हो चुके थे क्यूँकी 3 मार्च के बाद वाले दिन को 18 मार्च घोषित कर दिया गया था |

अब परंपरा की बात कर लेते हैं ; हिन्दू नववर्ष की परंपरा कम से कम ५००० वर्ष पुरानी तो है ही इसका हमारे पास साक्ष्य है और इस नववर्ष की तो तिथि का ही निर्धारण ही उचित तरीके से नहीं हुआ है | अगर भारतीय परंपरा को छोड़ दिया जाय और यूरोप की ही बात कर ली जाय तो मार्च में नववर्ष मानाने की परंपरा कहीं अधिक पुरानी और समृद्ध है | अब बात करते हैं आधुनिकता के ध्वजवाहकों की जिनका मानना है की "ज़माने के साथ चलो" या "पुरानी बातें छोडो और नए तरीकों को अपनाओ " तो क्या किसी चीज को इस लिए ही अपनाया जा सकता है की वो नयी  है ?? एक प्रसिद्द वाक्य है की "बाजार में तकनीकी या नवीनता नहीं अपितु उपयोगिता बिकती है "  जब बाजार में "केवल नवीनता" नहीं बिक सकती है तो इस "मुर्खतापूर्ण नवीनता " को हमारे जीवन में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान क्यूँ मिलाना चाहिए ??

अब इसके बाद हम बात करते हैं उन लोगों की जो कहते हैं की "अगर 1 जनवरी को 'थोड़ी सी मस्ती ' कर भी लो तो क्या फर्क पड गया ??"  या क्या हमारी सस्कृति इतनी कमजोर है की कुछ 'New Year Parties ' से ख़तम हो जायेगी ?" या सबसे 'धमाकेदार' "क्या पुरी दुनिया पागल है ?" | तो सबसे पहले तो यह की जिस प्रकार Cristianity का Crist से कोई सम्बन्ध नहीं है और "वेलेंटाइन डे के उत्सवों के स्वरुप " का संत वेलेंटाइन से कोई सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार इस नववर्ष में कुछ भी नवीन नहीं है |इसकी लोकप्रियता का कारन केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वह रणनीति है जिसके अनुसार "खर्च करना "ही एक मात्र जीवन शैली है और यही एक मात्र उत्सवपूर्ण जीवन शैली है , खर्च करना ही आप की महानता  की निशानी है और खर्च करना ही और की उदारता का प्रतीक है |उत्सव अर्थात खर्च करना | इन उत्सवों के स्वरूप के देखिये पूरा का पूरा ध्यान खर्च करने पर रहता है और पुरी तरह से मुर्खतापूर्ण खर्चे करने पर जो की केवल बड़ी कम्पनियों को ही लाभ पहुचती हैं | ये "केवल खर्च करना"  बड़ी कंपनियां हमारी जीवन शैली बना देना चाहती हैं जो की हमें स्वीकार है है क्यूँ की ये अमंगलकारी है | इस "थोड़ी सी मस्ती " से फर्क ये पड़ता है की आप मानसिक दासता को स्वीकार कर लेते हैं औ आप को पता भी नहीं चलता है की आप बहुराष्टीय कंपनियों प्रबंधकों के मानसिक चक्रव्यूह में फँस चुके हैं | हमारी भारतीय संस्कृति खतरे में नहीं पड सकती है क्यूँकी यह तो सत्य  पर आधारित होती है और सत्य तो "देश काल की सीमाएँ से परे" होता है परन्तु हमारी यह सत्य सनातन संस्कृति ही हमें यह कर्तव्य बोध देती है  की हम भटके हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाएँ | हमारी संस्कृति हमें यह सिखाती है की अगर कुछ लोग मुर्ख हैं तो यह उनकी गलती नहीं है अपितु उस समाज के ज्ञानियों की गलती है की उन्होंने उन मुर्कोह को ज्ञान क्यूँ नहीं दिया |

अंत में कुछ शब्द उन ज्ञानियों से जो की हमारे इस लेख से सहमत हैं और पूरी शक्ति से उन लोगों को कोसने में लगे हुए हैं जो इस "नववर्ष  उत्सव" को मानते हैं |ये हालत एक दिन में नहीं बिगड़े हैं तो एक दिन में सुधरेंगे भी नहीं | हमारे बुजुर्गों ने विकास के लोभ में जो पथ चुना था वो यहीं पर आता है | जिसे आधुनिकता का पर्याय माना गया था उसकी यही परिणिति थी | आज हम जो काट रहे है ये कम से कम 20 वर्ष पहले या शायद 60 वर्ष पहले बोया गया था | आज की फसल को कोसने या गली देने के बजे आर हम कल के लिए फसल बोयेंगे तो तो ज्यादा अच्छा रहेगा ऐसा मेरा निजी रूप से मानना है और हम इसी का प्रयास भी कर रहे हैं |

3 टिप्‍पणियां:

  1. अंकित भाई आप के लेख से पूर्णतया सहमत हूँ..शायद जो बिज बोया था उसी को काट रहे हैं...गुलाम मानसिकता को कोसने की बजाय हम आने वाले कल के लिए अच्छी फसल बोयें...
    आप को इस लेख के लिए कोटिशः आभार...

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