बुधवार, 14 मार्च 2012

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत

अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर "अरब" हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें विष्णु को हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था, इसी कारण देवों, दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध 'देवासुर संग्राम' हुए। देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था कि शुक्र उनके (देवों के) पक्षधर बन जायें, किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू बने रहे। यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना, तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गये और वहाँ 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" में लिखा है कि 'शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब'। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे 'काबा' कहते है, वह वस्तुतः 'काव्य शुक्र' (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके आराध्य भगवान शिव का ही मन्दिर है। कालांतर में 'काव्य' नाम विकृत होकर 'काबा' प्रचलित हुआ। अरबी भाषा में 'शुक्र' का अर्थ 'बड़ा' अर्थात 'जुम्मा' इसी कारण किया गया और इसी से 'जुम्मा' (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते है।
"बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योऽसुराणाम्"-जैमिनिय ब्रा.(01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ 'सेअरूल-ओकुल' के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
"अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।"
अर्थात-(1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात 'ज्ञान का पिता' कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल 'अज्ञान का पिता' कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। 'Holul' के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात 'संगे अस्वद' को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ' सेअरूल-ओकुल' के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । 'उमर-बिन-ए-हश्शाम' की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है -
" कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् - (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

18 टिप्‍पणियां:

  1. काबा से वैदिक धर्मियों का संबंध हमेशा से है Kaba & Vedic People
    धर्म वेदों में है और वेदों में शिवलिंग की पूजा का विधान कहीं भी नहीं है। वैदिक काल में प्रतिमा पूजन का चलन नहीं था। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। जब वैदिक काल में मूर्ति पूजा नहीं थी तो फिर काबा में वैदिक देवताओं की मूर्तियां भी नहीं थीं। काबा से भारत के हिंदुओं का संबंध है, यह साबित करने के लिए मूर्तियों की ज़रूरत भी नहीं है।
    काबा का संबंध वेदों से और हिंदुओं से साबित करने के लिए ‘सेअरूल ओकुल‘ जैसी किसी फ़र्ज़ी किताब की ज़रूरत ही नहीं है, जिसे न तो हिंदू इतिहासकार मानते हैं और न ही मुसलमान और ईसाई। इसके बजाय इस संबंध को वेद, बाइबिल और क़ुरआन व हदीस की बुनियाद पर साबित करने की ज़रूरत है।
    क़बीला बनू जिरहम को बेदख़ल करके जबरन अम्र बिन लहयी काबा का सेवादार बना। तब तक काबा में मूर्ति पूजा नहीं होती थी। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। अम्र बिन लहयी एक बार मुल्क शाम गया तो उसने वहां के लोगों को मूर्ति पूजा करते देखा। तब वह वहां पूजी जा रही कुछ मूर्तियां ले आया लेकिन मक्का के लोगों ने उन्हें काबा में रखने नहीं दिया। तब तक वे मूर्तियां उसके घर में ही रखी रहीं। उसने मक्का के प्रतिष्ठित लोगों की शराब की दावत करके उन्हें बहकाया कि ये देवी देवता बारिश करते हैं इससे हमारी फ़सल अच्छी होगी और हम भुखमरी के शिकार नहीं होंगे। तब उसके घर से बहुत अर्सा बाद उठाकर ये मूर्तियां काबा में रखी गईं। काबा का पुनर्निमाण इब्राहीम अलै. ने किया था और वह मूर्तिपूजक नहीं थे। उनकी संतान में बहुत से नबी और संत हुए हैं। उनकी वाणियां बाइबिल में संगृहीत हैं। उनमें मूर्ति पूजा की निंदा मौजूद है। लिहाज़ा मूर्ति पूजा से काबा का और भारतीय ऋषियों का संबंध जोड़ना इतिहास के भी विरूद्ध है और ऐसा करना वैदिक धर्म और भारतीय ऋषियों की प्रखर मेधा का अपमान करना भी है।
    ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति‘ कहकर ऋषियों ने विश्व को यही संदेश दिया है कि हम तो उस ईश्वर की उपासना करते हैं जिसकी कोई प्रतिमा नहीं है। इसी अप्रतिम ईश्वर की उपासना का स्थान काबा है। इस स्थान पर उपासना के लिए सबसे पहले घर का निर्माण स्वयंभू मनु ने किया था। बाइबिल और क़ुरआन व हदीस स्वयंभू मनु की महानता की गाथा से भरे पड़ हैं। स्वयंभू मनु बिना माता पिता के स्वयं से ही हुए थे। इन महान महर्षि को बाइबिल और क़ुरआन में आदम कहा गया है। आदम शब्द ‘आद्य‘ धातु से बना है।
    अरब के लोग आज भी भारत को अपनी पितृ भूमि कहते हैं क्योंकि परमेश्वर ने स्वर्ग से स्वयंभू मनु को भारत में और उनकी पत्नी आद्या को जददा में उतारा था। इस हिसाब से अरब भारतवासियों की माता की भूमि होने उनकी मातृभूमि होती है।
    लोग स्वयंभू मनु से जोड़कर ख़ुद को मनुज कहते हैं और इसी तरह इंग्लिश में लोग ख़ुद को ‘मैन‘ कहते हैं। अरबी में इब्ने आदम कहते हैं और फ़ारसी व उर्दू में ‘आदमी‘ बोलते हैं।
    पैग़ंबर मुहम्मद साहब स. ने स्वयंभू मनु को सदैव सम्मान दिया है और ख़ुद को इब्ने आदम कहकर ही अपना परिचय दिया है। यही नहीं बल्कि क़ुरआन में सबसे पहले जिस महर्षि का वर्णन हमें मिलता है वह भी स्वयंभू मनु ही हैं। क़ुरआन में स्वयंभू मनु की जो स्मृति हमें मिलती है, उसमें उनकी जो पावन शिक्षाएं हमें मिलती हैं, उन पर दुनिया का कोई भी आदमी ऐतराज़ नहीं कर सकता। इसीलिए हमें बड़े आध्यात्मिक विश्वास के साथ हमेशा से कहते आए हैं कि हम मनुवादी हैं।
    इसके अलावा यह भी एक तथ्य है कि काबा के पास जो ज़मज़म का ताल है वह ब्रह्मा जी का पुष्कर सरोवर है। यहीं पर विश्वामित्र के अंतःकरण में गायत्री मंत्र की स्फुरणा हुई थी। इतनी दूर सब लोग नहीं जा सकते, यह सोचकर सब लोगों को उस स्थान की आध्यात्मिक अनुभूति कराने के लिए भारत में राजस्थान में ठीक वैसी ही जलवायु में पुष्कर सरोवर बना लिया गया। जैसे कि भारत में दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में करबला मौजूद है। ये करबला उस असल करबला की याद में बनाई गई हैं जो कि इराक़ में है। मक्का का एक नाम आदि पुष्कर तीर्थ है।
    बहरहाल भारत और अरब के रिश्ते बहुत गहरे हैं और ‘तत्व‘ को जानने वाले इसे जानते भी हैं।

    देखें : अरब और हिंदुस्तान का ताल्लुक़ स्वयंभू मनु के ज़माने से ही है Makkah
    http://vedquran.blogspot.in/2012/03/makkah.html

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. 'जब वैदिक काल में मूर्ति पूजा नहीं थी तो फिर काबा में वैदिक देवताओं की मूर्तियां भी नहीं थीं। '

      मुझे इस तर्क में गलती दिखाती है| मूर्ति पूजा बाद में तो शुरू ही हो गयी थी| अरब के वैदिक निवासी मूर्ति पूजा करते थे ये कोई ऐसी बात नहीं जो की संभव ही न हो| मुर्तिया तोड़ी जाने के भी व्यख्यान है विरोध काल में .....

      हटाएं
    2. ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति‘ का ये मतलब नहीं की मूर्ति पूजा का विरोध किया हो| अपितु किसी भी रूप (जिसमे श्रद्धा है) और प्रकार से भगवान की भक्ति करने की छूट है| साकार-निराकार| यह बताया गया है की जिस रूप भजो वो उसी रूप में मिल जाता है ऐसा उदार और प्रेमी है वह! वास्तव में न रूप न लक्षण है उसका!

      हटाएं
    3. अनवर मिया परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं (एक अर्थ माप भी होता हैं)
      पर अल्लाह तो मिया हैं इंसानों की तरह की परिकल्पित हैं मोहम्मद का कल्पित देव |
      वेद की ऋचा दी हैं तो वेद के निराकार इश्वर को भी मानो क्यों की तुम्हारे अल्लाह की तो प्रतिमा हैं |
      तस्य अल्लाह प्रतिमा अस्ति
      http://answeringyou.blogspot.in/2012/05/blog-post.html
      आर्यो से बात करो वेद पर इधर उधर क्या बात करते हो

      aur ek baat mohammad jaise vyabhichari ko manana chode
      aaiye aapko islam sikhaate hain
      http://bhaandafodu.blogspot.in/

      हटाएं
    4. ये घटना आदिम युग की है, घटना स्थल इजराएल है, लेकिन स्थल-काल भाषा के परिवर्तन के साथ अपभ्रंश होते गए, और उनका अर्थ भी बदलता गया. उस वक्त आदिम मानव समुदाय में दो भाग थे (जीवन शैलियाँ), एक भाग सामाजिक तौर पर विकास कर रहा था जिसमे न्याय-राज्य -भौतिक विकास था जो नगर या गाँव बनाकर रहते थे . दूसरा भाग था अध्यात्मिक विकास का जो ऋषि मुनि थे जो अरण्य में रहते थे और वेद-साहित्य आदि का कार्य करते थे. जाहिर सी बात है, दोनों अपने अपने कार्यो में लगे रहते थे, और पौराणिक घटनाये और वैदिक घटनाये आगे पीछे नही घटी है, सब एक ही युग की बात है, लेकिन दो अलग अलग जीवन शैलियाँ होने की वजह से दोनों के साहित्य में अंतर दिखाई देता है. वेदों का दर्शन ऋषि मुनियो को हुआ है,जो अरण्य में रहते थे. और उनकी जीवन शैली उस वक्त के आम लोगो से भिन्न ही थी. तो वेदों के काल से पौराणिक बातो को अलग ही बता देना ठीक नही हे. और उस वक्त लेखन शैली का विकास नही होने की वजह से सब कुछ मौखिक तौर पर की कंठोपकंठ ही रहा था. पौराणिक बातो को आम लोगो का साहित्य माना जा सकता है जिसमे घटनाओ की बाते ज्यादा है,

      हटाएं
  2. विश्वजीत भाई बहुत ही ज्ञानवर्धक बाते आप ने बताई...कई तथ्यों की जानकारी मुझे भी नहीं थी..ये समझने वाले पर है की वो इन तथ्यों को समझे या अपने कुतर्कों का चिटठा खोल के लिख डाले

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सार्थक बहस चली है...संभवतः किसी निर्णायक स्थल पर समाप्त हो और मानव कल्याण में सहायक बनें.

    जवाब देंहटाएं
  4. 'जब वैदिक काल में मूर्ति पूजा नहीं थी तो फिर काबा में वैदिक देवताओं की मूर्तियां भी नहीं थीं। '

    मुझे इस तर्क में गलती दिखाती है| मूर्ति पूजा बाद में तो शुरू ही हो गयी थी| अरब के वैदिक निवासी मूर्ति पूजा करते थे ये कोई ऐसी बात नहीं जो की संभव ही न हो| मुर्तिया तोड़ी जाने के भी व्यख्यान है विरोध काल में .....

    जवाब देंहटाएं
  5. ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति‘ का ये मतलब नहीं की मूर्ति पूजा का विरोध किया हो| अपितु किसी भी रूप जिसमे श्रद्धा है और प्रकार से भगवान की भक्ति करने की छूट है| साकार-निराकार| यह बताया गया है की जिस रूप भजो वो उसी रूप में मिल जाता है ऐसा उदार और प्रेमी है वह! वास्तव में न रूप न लक्षण है उसका!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @ Rachit Garg
      1. ‘सेअरूल ओकुल‘ ये दोनों शब्द न तो अरबी में होते हैं और न ही फ़ारसी या उर्दू में होते हैं और न ही इस नाम की कोई किताब दुनिया में पाई जाती है।
      2. वैदिक काल में मूर्तिपूजा नहीं की जाती थी। सो अरब में भी नहीं की जाती थी।
      3. ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति‘ कहकर वेद बताते हैं कि ईश्वर की मूर्ति आदि बनाना संभव नहीं है।
      इसके बावजूद भी जो लोग मूर्ति, पेड़ और गाय-गुरू आदि की उपासना करने लगें और ईश्वर के बजाय उनसे अपने कल्याण की प्रार्थना करने लगें तो उनके बारे में वेद कहते हैं कि ये लोग अज्ञान अंधकार में पड़े हुए हैं और मरकर नर्क में जाएंगे। पुराणों में बताया गया है कि 28 प्रकार के नर्क में से एक अंधन्तमः नाम का एक भयंकर नर्क भी होता है।

      अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते.
      ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रताः
      (yajurved 40,9)

      4. बाद में तरह तरह के विकार आए तो सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध और देवदासी प्रथा आदि के साथ मूर्ति पूजा का प्रचलन भी हो गया। अरब में भी तरह तरह के विकार आए और उनका उन्मूलन करके धर्म को फिर उसी रूप में स्थापित कर दिया गया जिस रूप में वह स्वयंभू मनु, जल प्रलय वाले मनु और ब्रह्मा जी के काल में था जबकि ब्रह्मा जी ने वेद दिए थे।

      5. इस्लाम के रूप में आप सनातन धर्म को अपने शुद्ध रूप में पा सकते हैं और इस तरह आपको अपना तीर्थ भी सहज ही मिल जाएगा वर्ना जीवन भर आप मूर्तियां पूजते रहेंगे और वेद बताते हैं कि यह मूर्ति पूजा निष्फल भी जाएगी और लोक परलोक में दंड भी दिलाएगी।
      कोई किताब मूर्ति पूजा को जायज़ भी बताती हो तो भी वेद पर परख लीजिए और वेदकालीन ऋषियों को देख लीजिए कि उन्होंने आध्यात्मिक विकास के लिए किस मूर्ति की उपासना की या किस मूर्ति पर अपना ध्यान जमाया ?

      हटाएं
  6. अनवर मिया परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं (एक अर्थ माप भी होता हैं)
    पर अल्लाह तो मिया हैं इंसानों की तरह की परिकल्पित हैं मोहम्मद का कल्पित देव |
    वेद की ऋचा दी हैं तो वेद के निराकार इश्वर को भी मानो क्यों की तुम्हारे अल्लाह की तो प्रतिमा हैं |
    तस्य अल्लाह प्रतिमा अस्ति
    http://answeringyou.blogspot.in/2012/05/blog-post.html
    आर्यो से बात करो वेद पर इधर उधर क्या बात करते हो

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @ राष्ट्र प्रहरी !
      कौन है आर्य ?
      किस से बात करें ?
      स्वामी दयानंद जी मनु स्मृति का प्रमाण देकर कह गए हैं किजो दो समय होम न करे उसे द्विजों के सब कर्मों से बाहर करके शूद्र अर्थात मूर्ख समझो.
      अब बताइये आप में से कौन दोनों सा,आय होम करता है ?
      सत्यार्थ प्रकाश , ४ समुल्लास , पृष्ठ 65.

      हटाएं
    2. ye rashtra prahri jo bhi hai khud hi idhar udhar ki baat kar rahe hai. aarya kaun? lutere the jinhone dravido ko marakhud videshi the aarya. madhya asia se aye the aur bhishan rakt sangram se bhara hua hai in lutere aryo ka itihaas.

      हटाएं
    3. ye rashtra prahri jo bhi hai khud hi idhar udhar ki baat kar rahe hai. aarya kaun? lutere the jinhone dravido ko marakhud videshi the aarya. madhya asia se aye the aur bhishan rakt sangram se bhara hua hai in lutere aryo ka itihaas.

      हटाएं
  7. मुर्ति पुजा नही होती थी पर मूर्ति बनाने पर तो कोई प्रतिबंध न था।बाद में उन मूर्तियों की पूजा होने लगी इसमें आर्यो का दोष नही।

    जवाब देंहटाएं
  8. वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ] हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो | सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५] हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं | अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | [रिग वेद अष्टक ६ अ ० ५ सू० ५८ मं० ८] हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो | ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ] हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  9. वेद भी अवतारवाद के पक्षधर है,,,,,,,,,,,----------+ अवतारवाद का भी वेद में मंत्र आया प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते (यजु. 31/19) इन्द्रो मायाभि: पुरूरूप ईयते (ऋगवेद सं. 6/47/18) इन्हीं मंत्रों के अनुाद रूप में भगवत गीता में कहा गया है- अजोडपि सन अव्ययात्मा भूतानामीश्वरोडपि सन प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायमा (4/6) परमात्मा का विविध प्रकार से पृथ्वी में प्रकट होना ही अवतार है । भगवत गीता में ही धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर भगवान के अवतार को सिद्ध किया है । यदा यदा कि धर्मस्य ग्लानिर्भवाते भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम। परित्राणाय सादूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थायसम्भवामि युगे-युगे ।। अर्थात -धर्म का ह्रास, अधर्म का अभ्युत्थान होने पर सत्पुरूषों की सुरक्षा और दुराचारी दुर्जनों के विनाश एवं धर्म के संस्थापन के लिए पृथ्वी पर भगवान का अवतार होता है। यह सत्य है कि हर कोई अपने धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए उस प्रभु के सहारे है जो अदृश्य है। हमारे चिन्तन में सर्वत्र ईश्वरदर्शन करना ही सर्वोपरि है। ईशावास्यमिदं सर्वे यत्किं च जगत्यां जगत सनातन धर्म कहता है कि हम सब ईश्वर के अंश है और सभी को मानवता का भाव रखकर एक दूसरे से स्नेह रखते हुए प्रभु स्मरण करना चाहिए स्वंय भगवान कहते हैं - ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम (भगवतगीता 4/11) जो मुझेजिस प्रकार भजते हैं भी उसको उसी प्रकार भजताहूं। मूर्ति पूजा के साथ हमारा भगवान के सात जन्म से लेकर मृत्यु तक का घनिष्ठ एवं अटूट संबंध है।

    जवाब देंहटाएं

आप के इस लेख पर विचार क्या है? क्या आप लेखक के विचारों से सहमत हैं असहमत..
आप अपनी राय कमेन्ट बॉक्स में लिखकर हमारा मार्गदर्शन करें..