सोमवार, 30 जनवरी 2012

पचपन और बचपन


पचपन की उम्र का सेहरा पहने मिश्रा जी बगीचे में अकेले बैठे उबासी ले रहे थे। तभी उनका पाँच वर्ष का पौता, करन कुछ टूटे हुए खिलौने लिए भागा-भागा उनके पास आया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ दादा जी बचाओ-बचाओ दादा जी। मम्मी मेरे खिलौने कबाड़ी वाले को दे रही हैं। ये मेरे खिलौने हैं, मैं नही दूँगा इन्हें।’’ रूआँ सा करन दादा जी के पीछे खुद को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था और खिलौने वाले हाथों को अपनी कमर के पीछे छिपा रहा था।
‘‘क्या हुआ बहू? क्यों ले रही हो इसके खिलौने?’’, दादा जी ने पूछा।
‘‘पिताजी! ये सारे टूटे हुए खिलौने हैं। मैं कह रही हूँ कि इन्हें छोड़ दे, हम इससे भी अच्छे नये खिलौने इसे दिला देंगे। पर ये है कि मानता ही नही। पुराने-टूटे खिलौनों से घर भर रखा है।
करन, बेटा नये खिलौने ले लेना........इन्हंे मम्मी हो दे दो। मैं तुम्हें बिलकुल ऐसे ही नये खिलौने दिला दूँगा।
नहीं दादा जी, मुझे इन्हीं से खेलना है। मैं नहीं दूँगा।
अच्छा बहू, रहने दो। मत दो इसके खिलौने। खेलने दो इन्ही से इसे।
परेशान मम्मी वापस लौट जाती हैं।
अच्छा करन! ज़रा दिखा तो क्या खिलौने हैं तेरे पास, जिनके लिए तू मम्मी से इतना लड़ रहा था।
दिखाऊँ? मासूमियत से पूछते हुए करन ने एक टूटा ट्रक, कुछ तिल्लीनुमा लकड़ी, एक कपड़ा और पतंग का मंज्ज़ा आगे बढ़ा दिया।
दादा जी भी उस सामान को देखकर हैरान थे। परन्तु खिलौनों के प्रति करन का अनुराग देखकर उनकी उन खिलौनों में उत्सुकता बढ़ गई।
करन, इनसे खेलोगे कैसे?
आप खेलोगे दादा जी मेरे साथ?
हाँ-हाँ, क्यों नही! बताओ कैसे खेलना है?
मैं बताता हूँ। पहले तो आप ये स्टिक पकड़ो। अब इन्हें है ना इस ट्रक के चारों कोना पर लगाओ। इन छेदों में इन्हें लगा देते हैं। अब उस मंज्ज़ा से है ना इन स्टिक्स् को बाँधो, नी तो ये गिर जायेंगी। अब ये कपड़ा इन स्टिक्स् पर ऐसे लगा दो। ये बन गया हमारा घर। देखो दादा जी अच्छा है ना? और पता है ये चल भी सकता है।
दादा जी हैरान, करन को देख रहे थे। बच्चों के जो खिलौने हमारे लिए व्यर्थ का सामान होते हैं उन्हें लेकर कितनी कल्पनाएँ उनके संवेदनशील संसार में होती हैं। कैसा अद्भुत सान्निध्य उन सड़क पर ठोकर खाने वाले पत्थरों के प्रति, जो इनकी दुनिया में आकर सुंदर इमारत का रूप धर लेते हैं। ये बच्चें ही तो हैं जो पुरानी निर्जीव चीजों में से भी व्यर्थ का विशेषण हटा, उनके महत्व को बढ़ा देते हैं अन्यथा आज तो जीवित प्राणी भी का अस्तित्व भी अर्थहीन हो चला है। तभी तो पचपन का बचपन को किया गया प्यार लौटाने का समय आता है तो बचपन पचपन से उकता जाता है।
दादा जी के एकाग्रता के तार को करन की आवाज ने झनकारा और ‘चलो दादा जी खेलते हैं’ का सुर उत्पन्न हुआ। और एक बार फिर बचपन-पचपन का खेल प्रारम्भ हो गया।


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