गुरुवार, 14 जुलाई 2011

शिक्षा क्षेत्र में प्रस्तावित नयी कानूनी रचनाये ...

सुव्यवस्था सूत्रधार मंच व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में चर्चा करने का मंच है और अच्छी चर्चाओं और गंभीर विमर्शों के लिए इस मंच पर कुछ संग्रहनीय लेख भी लगाये जायेंगे उन व्यक्तियों के द्वारा लिखे हुए जो की ब्लॉग जगत पर नहीं हिं परन्तु इस विषय पर उन्होंने कुछ अच्छे लेख लिखे हैं | इसी श्रंखला में देवेन्द्र शर्मा जी का शिक्षा व्यवस्था लिखा हुआ लेख हम इस मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं |

gurukul
शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों के सर्वांगीण,उत्कॄष्ट विकास का माध्यम है।व्यक्तिगत ही नही वरन समाजिक एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने का एकमात्र उपक्रम है। शिक्षा के इसी मह्त्व के ध्यान मे रखते हुये संसार के प्रत्येक राष्ट्र के मनीषियों, चिन्तकों ने शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार करते हुये इसे राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कॄति का अभिन्न अंग माना है। शिक्षा उस राष्ट्र-समाज के जीवन मुल्यों को संरक्षित एवं संवर्धित करती है। अतःशिक्षा का जितना संबंध शिक्षार्थी उससे अधिक समाज से है, नये विद्यार्थी, नयी पीढी जीवन-मुल्यों एवं संस्कॄति के प्रति निष्ठा शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त करती है। यह माध्यम ही एक विद्यार्थी का शारीरिक, मानसिक, नैतिक विकास कर उसका समाजीकरण करता है।

हमारे भारत मे आदिकाल से ही ग्यान की साधना अनवरत चलती रही है।"नास्ति विद्यासमं चक्षुः" अर्थात् विद्या के समान् कोई दूसरे नेत्र् नही होते है। ऐसे उच्च् आदर्शों एवं अपनी विशिष्ट शिक्षा पद्धति के कारण ही हमारे देश भारत ने सह्स्त्रॊं वर्षों तक संपूर्ण विश्व का सांस्कॄतिक नेतॄत्व करते हुये विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की। हमारी शिक्षा परंपरा मे ऐसा माना गया है "न हि ग्यानेन् सदॄशम् पवित्रमिह् विद्यते"
ग्यान् पवित्रतम् है। यह विकास यात्रा कला-कौशल, उद्योग-धंधों, खगोल-गणित आदि अनेक क्षेत्रों में भी विश्व में अग्रणी रही। भारतीय समाज के नैतिक गुणों के संबंध में ई०पू० ३०० में ग्रीक राजदूत मेगस्थनीज ने लिखा है,"किसी भारतीय को झूठ बोलने का अपराध न लगा । सत्यवादिता और सदाचार उनकी दॄष्टि में बहुत ही मुल्यवान वस्तुऎं हैं।"



ख्यातिनाम विद्वानडा० अल्तेकर ने Education in Ancient India मे कहा है कि उपनिषद काल में भारत मे साक्षरता ८० प्रतिशत थी।छांदोग्य उपनिशद ५।११।५ में एक जनपदाधिकारी यह घोषणा करता है कि उसके जनपद मे कोई भी निरक्षर नहीं है। तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला, ओदंतपुरी, मिथिला, नादिया, काशी आदि शिक्षा केन्द्रों की ख्याति विश्व में विशिष्ट स्थान रखती थी। बौद्ध काल में जन-सामान्य में शिक्षा-प्रसार को अत्याधिक प्रश्रय मिला।भार त के प्रत्येक ग्राम में न्युनतम एक पाठ्शाला होती थीबडे स्थानों मे एक से आधिक शालाऎं भी होती थी, इन्हें ’टोल’ ’अग्रहार’के नाम से जाना जाता था।


वर्तमान् में विद्यालयीन् शिक्षा पद्धति का मह्त्वपूर्ण स्थान् है, शिक्षक् गुरुस्वरूप् है।शिक्षक् के सहयोग्, समुचित् मार्गदर्शन् से ही ग्यानयात्रा सुगम् हो पाती है अतः शिक्षकों के प्रति श्रद्धाभाव् रखना शिक्षार्थी का मूल धर्म् है,"श्रद्धावांल्लभते ग्यानम्"श्रद्धा से ही ग्यान् प्राप्त् होता है। यद्यपि वर्तमान् मे द्रुतगति से होता हुआ शिक्षा का व्यवसायिकरण एक बडी चिन्ता का कारण है। यद्यपि परिस्थितियां स्पष्ट् रूप् से संकेत कर रही है कि व्यवसायिकरण् अब अपरिवर्तनीय् है,परन्तु क्या ये वास्तव मे अपरिवर्तनीय् है, या एक छलावा रचा जा रहा है। जिस देश मे सत्ताधारी, अफ़सरशाही, व्यापारी, मीडिया मिल कर लाखॊं करोडों के घोटाले कर रहे हो, जिस देश का कई लाख करोड रुपया विदेशी बेंकों मे पडा हो वहां धन की कमी होगी ये स्वीकार करना थोडा कठिन लगता है। कही शिक्षा का इस तरह से निजिकरण नेताओं, अफ़सरों और देशी-विदेशी व्यापारियों के द्वारा नयी घोटालेबाज व्यवस्था का सूत्रपात तो नही है परन्तु हमें यह विस्मरण् नही करना चाहिये कि:"पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न् चापि सर्वं नवमित्यव्वद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥" अत: प्राचीन सब श्रेष्ठ् नही होता और न नवीन पूर्णतः निर्दोष। अत: शिक्षा क्षेत्र में निकट भविष्य में होने वाले परिवर्तनों को समाज-राष्ट्र् के हित् मे स्वीकार करने से पहले इसके लाभ-हानि की खोज खबर लेने का मानस बने इसके लिये प्रयास हों.



लेखक देवेन्द्रशर्माजी भारत के उच्चतम न्यायलय में अधिवक्ता हैं तथा भारतीय संविधान आदर्श व्यवस्था इनकी रूचि तथा विशेषज्ञता के विषय हैं और इस विषय पर उन्होंने बहुत कार्य किया है और अभी भी कर रहे हैं | देवेन्द्र जी वर्त्तमान में अन्य सामाजिक कार्यों तथा कुछ समाजसेवी संगठनो के साथ जुड़े होने के अतिरिक्त फेसबुक तथा ट्विट्टर पर भी सक्रीय हैं |

10 टिप्‍पणियां:

  1. भाई देवेन्द्र शर्मा जी, आपसे पूरी तरह सहमत हूँ|
    हमारे देश में वर्तमान में शिक्षा का स्तर बहुत गिर गया है| इसी कारण वह श्रेष्ठता नहीं मिल पा रही जो मिलनी चाहिए|
    कहने को तो लुछ अच्छी संस्थाएं हैं किन्तु वे भी आरक्षण नामक बीमारी से ग्रसित हैं| ऐसे में अच्छी शिक्षा का विकल्प होने के बाद भी छोटे मोटे संस्थानों की शरण लेनी पड़ती है|
    जबकि एक समय वह था जब भारत के गुरुकुलों में विदेशों से छात्र पढने आते थे|
    ज्ञान-विज्ञान, कला व्यापार एवं औषधियों से भारत भूमि परिपूर्ण थी|

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  2. अरे अंकित भाई अच्छा हुआ ये बतलाया आपने यार। ये तो बहुत अच्छा लेख है। आपका ब्लॉग बुकमार्क कर रहा हूँ। आज शायद इंडिया में गुरू-पूर्णिमा भी है ना ? तो इस अवसर पर यह लेख और भी प्रासंगिक हो गया है। आपको और मित्रगणों को हैप्पी गुरुपूर्णिमा।

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  3. गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अन्यंत सार्थक लेख आया है इस मंच पर , हमारी इतनी समृद्ध शिक्षा परंपरा रही है जिसमे जनकल्याण की भावना निहित थी और आज हमें बताया जाता है की यदि अंग्रेज नहीं होते तो हमारे देश में कोई शिक्षा व्यवस्था ही नहीं होती |

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  4. हमारा इतिहास सदियों से गवाह रहा है कि विश्व निर्माण में भारत का आधुनिक व महत्वपूर्ण योगदान रहा है !
    जय श्रीराम

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  5. प्राचीन सब श्रेष्ठ् नही होता और न नवीन पूर्णतः निर्दोष..
    इस बात को ध्यान में रखकर अगर वास्तविक रूप से कार्यान्वयन हो तो मैकाले की गुलामी से आजदी एवं एक स्वावलंबी पद्धति का निर्माण हो सकता है..
    बहुत सुन्दर ज्ञानदायक विचारणीय आलेख..

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  6. सहमत हूँ आशुतोष जी परन्तु केवल आधिनिकता की सनक के कारण सब कुछ प्राचीन छोड़ देने और केवल छोड़ ही नहीं देने अपितु उसकी महानता को अतार्किक रूप से अस्वीकार करने की पृवत्ति दुखद है

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  7. सही बात है ..सनक न आधुनिकता की न प्राचीनता की उचित है....हाँ 'युगों के अनुभव' अवश्य ही ' सामयिक प्रयोग व उसके तात्कालिक परिणाम' से उच्च कसौटी होती है ....दोनों का समन्वय से ही राह निकालना उचित रहता है....

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  8. बस एक बात कहूंगा कि श्रद्धावान ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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